Thursday, 26 June 2025

जंगल बचाओ या कब्जा बचाओ?

“जंगल बचाओ या कब्जा बचाओ? आंदोलन की आड़ में नेताओं का ‘जमीन प्रेम’”

✍ जमीनी रिपोर्ट, सीहोर से

सीहोर का जंगल इन दिनों हरियाली से नहीं, दलालीपन से घिरा है।

जहां एक ओर सरकार ने लाड़कुई और इछावर वन क्षेत्र में हजारों एकड़ जमीन अतिक्रमण मुक्त कराकर सरदार वल्लभभाई पटेल अभ्यारण्य बनाने की ठानी है, वहीं दूसरी ओर कुछ नेताजी लोगों के पेट में मरोड़ उठने लगे हैं। कारण?
क्योंकि अब वो जंगल वापिस मांगा जा रहा है, जिसे इन्होंने बपौती समझ कर जोत डाला था!

🌳 धरती के बेटों को बरगलाने वाले ‘जंगल के राजा’

ऊनील बारेला(यह नाम व्यंगात्मक रखा गया है असली नाम आप खुद समझ जाना) नाम तो सुना ही होगा।
जो कहने को आदिवासियों का मसीहा हैं, मगर असल में ‘जंगल के जमीनदाता’ बन बैठे हैं।
कब्जा किया उन्होंने…
जमीन हड़पी उन्होंने…
शिवराज के राज में मलाई खाई उन्होंने…
और अब आंदोलन करवाएंगे ये भोले-भाले आदिवासियों से? सूत्रों की माने तो इनके परिवार ने इटावा, खजूरी, पानी डूंगला, पिपलानी जैसे गाँवों के जंगलों में करीब 1000 से 1500 एकड़ भूमि पर कब्जा कर रखा है।यह साहब पंचायत विभाग में सरकारी मुलाजिम भी है और इनको पंचायत का मुँह देखे ज़माना हो गया।

"खुद खाए मलाई, और आदिवासियों को पकड़ा दी झुनझुनी!"

🌿 नेताओं का ‘हरियाली प्रेम’ तभी जागा जब कब्जा हिलने लगा

अब जब सरकार ने तय किया कि जंगल से अतिक्रमण हटेगा,
तो जिनका धंधा 'हरियाली' में था, वो बेचैन हो उठे।
अब आदिवासियों को कहा जा रहा है –
"तुम्हारे हक छीने जा रहे हैं, उठो! आंदोलन करो!"

"आपके पेट की आग बुझाने के लिए आदिवासियों की आस्थाओं को क्यों जलाया जा रहा है?"

📅 28 जून का बुलावा – असल में ‘कब्जा बचाओ महासम्मेलन’?

नेता लोग 28 जून को सीहोर में आदिवासियों को इकट्ठा करने का ऐलान कर रहे हैं।
नाम दिया गया है – जंगल बचाओ आंदोलन।
मगर मकसद है – अपनी जमीने बचाओ जलसा!

"गज़ब ढोंग है साहब, चोरी भी करते हैं और भगवान भी बनते हैं!"

🧠 आदिवासियों से सवाल — "नेता की चाल में फँसोगे या जंगल बचाओगे?"

आदिवासी भाइयों और बहनों,
आपका इतिहास संघर्षों से भरा है — जंगल से रिश्ता रोटी जैसा है।
पर आज कुछ नेताओं ने आपको झूठी कहानी सुनाई है कि सरकार आपकी जमीन छीन रही है।

"असल में सरकार जंगल बचा रही है, और नेता अपनी जड़े!"

🌎 जंगल रहेगा तो कल रहेगा

सरकार अब जंगल को बचाना चाहती है – वन्य जीवों के लिए, जलवायु के लिए, आपके बच्चों के भविष्य के लिए।
पर जिनका पेट ‘हरियाली’ से पलता था,
अब वो ‘हरियाली के रक्षक’ बनकर ‘धंधे की रक्षा’ कर रहे हैं।

"तो फैसला आपका है – जंगल बचाओ या नेताओं का कब्जा?"

Wednesday, 25 June 2025

तीन पकड़ाए, बाकी 'धोती समेट' के निकल गए?

तीन पकड़ाए, बाकी 'धोती समेट' के निकल गए?

अब ये मत पूछिए कि इंसाफ मिला या नहीं...
बस इतना समझ लीजिए कि तीन गिरफ्तार हुए हैं,
बाकी वीडियो में दिख रहे लोग शायद 'छाया' थे!

देखा था आपने वो वायरल वीडियो?
जिसमें दो युवकों के साथ भीड़ ने इंसानियत की सारी हदें पार कर दीं —
जो आजकल सीहोर मैं नहीं बल्कि पूरे देश में ट्रेंडिंग वीडियो बन गया है, गोबर, बेइज्जती और पिटाई,कैमरे में कैद...

लेकिन पुलिसिया कार्रवाई देखिए साहब...
"केवल तीन" लोगों को गिरफ्तार किया गया है!

अब आप ही सोचिए...
भैंस को नहलाना हो तो चार आदमी लगते हैं...
लेकिन यहां दो जवान लड़कों को पीटना, गोबर खिलाना,
कपड़े बदलवाना — ये तीन लोगों ने कर दिखाया?

लगता है ये तीन लोग "शक्तिमान", "बाहुबली" और "सुपरमैन" हैं!
या फिर इनके पास कोई "गोबर स्पेशल ट्रेनिंग" थी?

वीडियो में भीड़ साफ दिख रही है,
लोग हंस रहे हैं, गालियां रहे हैं,
कैमरे घुमा रहे हैं...
पर गिरफ्तारी केवल तीन लोगों की ?

अब तो शक होता है कि पुलिस ने गिरफ़्तारी नहीं की,
बस संख्या पूरी करने के लिए 'तीन पर्चे' छाप दिए!

सवाल तो बनता है, जनाब!

क्या वीडियो में दिख रहे बाकी लोग 'भूत' थे?
क्या बाकी सब कैमरे के पीछे थे और इंसाफ के दायरे से बाहर?
या फिर ये "तीन मूर्ति" बाकी सबका गुनाह अकेले ढोएंगे?

मामला सीहोर जिले के एक गांव के वायरल वीडियो से जोड़कर देख सकते हैं,
मामला सीहोर जिले का है तो थाना भी सीहोर जिले का ही होना चाहिए

अब आप सोच रहे होंगे की भैया सवाल क्यों पूछ रहे हो,
पुलिस की कार्रवाई पर उंगली क्यों उठा रहे हो,
तो भैया नाम ही है उंगली चाचा तो काम भी वही होगा
जैसा नाम वैसा काम,

🚨 परसवाड़ा हाटबाजार की सच्चाई: सब्जी कम, कीचड़ ज़्यादा! प्रशासन की लापरवाही की पोल खुली! 🚨
परसवाड़ा हाटबाजार: सब्जियों से पहले कीचड़ बिक रहा है!
जब विकास फिसलन में बदल जाए – ग्रामीण बाजार की शर्मनाक तस्वीर

बालाघाट-परसवाड़ा हाटबाजार इस समय ग्रामीण विकास की उस हकीकत को उजागर कर रहा है, जो फाइलों में तो जगमगाती है, पर ज़मीन पर कीचड़ में सनी होती है।

हर बुधवार लगने वाला यह बाजार अब कारोबार का नहीं, कीचड़ पर्व का केंद्र बन गया है। न सड़कें हैं, न छत, न सुविधाएं – और जो है, वो है बेहिसाब वसूली और बेहिसाब कीचड़।

💰 सुविधा नहीं, सिर्फ वसूली है

यहाँ दुकानदारों से ₹80 से ₹200 तक वसूला जाता है। बदले में न तो शेड मिलता है, न फर्श, और न ही साफ-सफाई। ठेकेदार जेब भरते हैं और प्रशासन ‘आँखों में घी और कानों में तेल डालकर’ बैठा है।

🌧️ बारिश आई, व्यवस्था बह गई

बारिश का पहला छींटा पड़ा नहीं कि हाटबाजार दलदल में तब्दील हो गया। ग्राहक आए थे टमाटर खरीदने, मगर खुद आलू बनकर फिसलते नजर आए।

"लगता है ‘जल निकासी’ को जलसमाधि मिल गई है।"

🗣️ बाजार से कुछ आवाजें

  • 👩‍🌾 "हम यहाँ कमाई नहीं, कीचड़ में कसरत करने आते हैं।"
  • 👨 "यहाँ सब्जी नहीं, जूते धोने की मजबूरी बिकती है।"
  • 👴 "ठेकेदार बदले, हालत नहीं – ये ‘विकास की विदाई’ है।"

🙈 प्रशासन – न तीन में, न तेरह में

ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत, और जिला प्रशासन – तीनों जिम्मेदार हैं, पर सभी जिम्मेदारी से कोसों दूर।

📌 क्या होगा समाधान?

  • स्थायी शेड और पक्की सड़कों की व्यवस्था
  • जल निकासी और नियमित सफाई
  • पारदर्शी शुल्क और ग्रामीण सुविधा पर खर्च
🔴 ब्रेकिंग न्यूज: देवमाता स्कूल के पास परमिट लेकर खंभे पर चढ़े युवक की करंट से दर्दनाक मौत, परिजनों का बिजली कार्यालय में हंगामा – पावर हाउस ऑपरेटर के खिलाफ कार्रवाई की मांग
भेरूंदा में बिजली विभाग की लापरवाही से युवक की मौत
करंट की चपेट में व्यवस्था! भेरूंदा में युवक की खंभे पर दर्दनाक मौत
परमिट था, लेकिन सुरक्षा इंतजाम नहीं; शव रख बिजली ऑफिस में परिजनों का हंगामा
🔴 ब्रेकिंग न्यूज: देवमाता स्कूल के पास विद्युत कर्मचारी की मौत, विभाग पर भारी लापरवाही के आरोप

सीहोर जिले के भेरूंदा नगर में बिजली विभाग की घोर लापरवाही ने एक युवा की जान ले ली। देवमाता स्कूल के पास स्थित पावर हाउस से परमिट लेकर खंभे पर तार जोड़ने चढ़े रुद्रप्रताप परते (निवासी गिलोर) की करंट लगने से मौके पर ही मौत हो गई। बताया जा रहा है कि कार्य के दौरान लाइन को ऑफ करने की जिम्मेदारी निभाने में विभाग पूरी तरह विफल रहा।

घटना के बाद परिजनों और ग्रामीणों ने शव को सीधे बिजली ऑफिस में रखकर हंगामा किया। गुस्साए लोगों ने पावर हाउस ऑपरेटर को तत्काल निलंबित करने की मांग की और विभागीय अधिकारियों पर कार्रवाई की बात कही।

"परमिट लेकर खंभे पर गया था मेरा भाई, लेकिन विभाग ने न तो लाइन काटी, न सुरक्षा दी। यह हत्या है लापरवाही से की गई।" — मृतक के भाई का बयान

सूचना मिलते ही भेरूंदा थाना प्रभारी मौके पर पहुंचे और परिजनों को समझाइश देकर 'यथासंभव कार्रवाई' का आश्वासन दिया। भारी हंगामे के बाद परिजन अंततः शव को अंतिम संस्कार के लिए ले गए।

सवालों के घेरे में विभाग

सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि परमिट जारी हुआ था, तो कार्य स्थल पर लाइन बंद क्यों नहीं की गई? ठेकेदारों द्वारा काम कराए जाने की प्रथा तो वर्षों से चल रही है, लेकिन क्या सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराना विभाग की जिम्मेदारी नहीं बनती? यह हादसा सिस्टम की लचर निगरानी और कर्मचारी सुरक्षा की उपेक्षा का नतीजा है।

नहीं पहली घटना...

यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। प्रदेश में हर साल दर्जनों लाइनमैन और विद्युत कर्मचारी ऐसी ही घटनाओं में जान गंवा बैठते हैं, लेकिन जिम्मेदार अधिकारी कुछ दिनों की फाइलिंग और दिखावटी जांच के बाद फिर उसी लापरवाही के दलदल में लौट जाते हैं।

‘यथासंभव कार्यवाही’ बन चुकी है रटी-रटाई पंक्ति

हर मौत के बाद थाना प्रभारी और विभागीय अधिकारी यही कहते हैं – "यथासंभव कार्यवाही करेंगे"। लेकिन ना किसी को सस्पेंड किया जाता है, न चार्जशीट, और ना ही किसी पर ठोस कानूनी कार्यवाही होती है।

कटाक्ष: खंभे पर चढ़े थे सपने, नीचे गिर गया सिस्टम

यह एक व्यक्ति की नहीं, पूरे सिस्टम की हार है। एक परमिट में लिखा गया था – 'काम की अनुमति', लेकिन न सुरक्षा, न निगरानी, न हेलमेट, न रबर ग्लव्स। व्यवस्था ने फिर एक गरीब को मौत के हवाले कर दिया।

Tuesday, 24 June 2025

"पत्रकारों पर पाबंदी! क्या सीहोर की जनसुनवाई में कोई गुप्त खेल चल रहा है?"

सीहोर जिले की जनसुनवाई एक शुद्ध प्रशासनिक नौटंकी बन चुकी है — वो भी टिकट के बिना एंट्री वाली। नाम है जनसुनवाई, लेकिन व्यवहार में यह एक जनबचाई अभियान है — जहां अधिकारी खुद को जनता से नहीं, पत्रकारों से बचाने में लगे हैं।

हर मंगलवार को लगता है जैसे किसी गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान का आयोजन हो रहा हो — जिसमें सिर्फ "दुःखी प्रजा" को अंदर आने की अनुमति है, लेकिन "लोकतंत्र का आईना" यानी पत्रकार बाहर रोक दिए जाते हैं। क्यों? क्योंकि पत्रकारों की आंखें कैमरे से ज्यादा तेज होती हैं और कलम, अफसर की मीठी झूठी बातों को चीरकर सच निकाल देती है।

शायद जनसुनवाई में शिकायतों से ज्यादा लीपापोती के फार्मूले बांटे जाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि समाधान से ज्यादा फॉर्म भरवाने और तारीख पर तारीख की पर्चियां दी जाती हैं?

और कहीं ये भी तो नहीं कि जो बातें अंदर होती हैं, अगर वो बाहर आ जाएं तो अफसरों की "सेवा निवृत्ति" समय से पहले ही हो जाए?

पत्रकारों को बाहर रोकना मतलब सीधा-सीधा ये संदेश देना कि —
"हमें जनता की नहीं, अपनी छवि की चिंता है!"
"हम समस्या सुलझाने नहीं, सिर्फ अभिनय करने बैठे हैं!"
"हमने लोकतंत्र को दरवाज़े के बाहर खड़ा कर दिया है, कृपया डिस्टर्ब न करें!"

कभी-कभी तो लगता है जनसुनवाई नहीं, "जन छुपाई" हो रही है। कहीं कोई रजिस्टर में झूठी टिक, कहीं बिना समाधान के हस्ताक्षर, और कहीं हां-में-हां मिलाकर जनता को 'दुख हरने का नाटक'।

पत्रकार अंदर नहीं जा सकते क्योंकि...

  • कैमरा अफसरों के झूठे मुस्कान को पकड़ लेता है
  • माइक जनता के असली दर्द को रिकॉर्ड कर लेता है
  • और कलम, उस सड़ी-गली व्यवस्था को दुनिया के सामने उकेर देती है

इसलिए पत्रकार खतरा हैं — लोकतंत्र के लिए नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के लिए

तो चलिए, अगली बार जनसुनवाई में एक बोर्ड भी लगवा ही दीजिए:

🪧 "यहाँ सत्य का प्रवेश वर्जित है, कृपया पत्रकार दूरी बनाए रखें।"
🪧 "यह एक पवित्र भ्रष्टाचारी अनुष्ठान है, कैमरा लाना मना है!"
“जब पत्रकारों को बाहर रखना पड़े, तो समझ लीजिए जनसुनवाई नहीं — बंद कमरे में झूठ की चायपान बैठक चल रही है!”

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