"पत्रकारों पर पाबंदी! क्या सीहोर की जनसुनवाई में कोई गुप्त खेल चल रहा है?"

सीहोर जिले की जनसुनवाई एक शुद्ध प्रशासनिक नौटंकी बन चुकी है — वो भी टिकट के बिना एंट्री वाली। नाम है जनसुनवाई, लेकिन व्यवहार में यह एक जनबचाई अभियान है — जहां अधिकारी खुद को जनता से नहीं, पत्रकारों से बचाने में लगे हैं।

हर मंगलवार को लगता है जैसे किसी गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान का आयोजन हो रहा हो — जिसमें सिर्फ "दुःखी प्रजा" को अंदर आने की अनुमति है, लेकिन "लोकतंत्र का आईना" यानी पत्रकार बाहर रोक दिए जाते हैं। क्यों? क्योंकि पत्रकारों की आंखें कैमरे से ज्यादा तेज होती हैं और कलम, अफसर की मीठी झूठी बातों को चीरकर सच निकाल देती है।

शायद जनसुनवाई में शिकायतों से ज्यादा लीपापोती के फार्मूले बांटे जाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि समाधान से ज्यादा फॉर्म भरवाने और तारीख पर तारीख की पर्चियां दी जाती हैं?

और कहीं ये भी तो नहीं कि जो बातें अंदर होती हैं, अगर वो बाहर आ जाएं तो अफसरों की "सेवा निवृत्ति" समय से पहले ही हो जाए?

पत्रकारों को बाहर रोकना मतलब सीधा-सीधा ये संदेश देना कि —
"हमें जनता की नहीं, अपनी छवि की चिंता है!"
"हम समस्या सुलझाने नहीं, सिर्फ अभिनय करने बैठे हैं!"
"हमने लोकतंत्र को दरवाज़े के बाहर खड़ा कर दिया है, कृपया डिस्टर्ब न करें!"

कभी-कभी तो लगता है जनसुनवाई नहीं, "जन छुपाई" हो रही है। कहीं कोई रजिस्टर में झूठी टिक, कहीं बिना समाधान के हस्ताक्षर, और कहीं हां-में-हां मिलाकर जनता को 'दुख हरने का नाटक'।

पत्रकार अंदर नहीं जा सकते क्योंकि...

  • कैमरा अफसरों के झूठे मुस्कान को पकड़ लेता है
  • माइक जनता के असली दर्द को रिकॉर्ड कर लेता है
  • और कलम, उस सड़ी-गली व्यवस्था को दुनिया के सामने उकेर देती है

इसलिए पत्रकार खतरा हैं — लोकतंत्र के लिए नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के लिए

तो चलिए, अगली बार जनसुनवाई में एक बोर्ड भी लगवा ही दीजिए:

🪧 "यहाँ सत्य का प्रवेश वर्जित है, कृपया पत्रकार दूरी बनाए रखें।"
🪧 "यह एक पवित्र भ्रष्टाचारी अनुष्ठान है, कैमरा लाना मना है!"
“जब पत्रकारों को बाहर रखना पड़े, तो समझ लीजिए जनसुनवाई नहीं — बंद कमरे में झूठ की चायपान बैठक चल रही है!”